२४ मई, १९६९

 

 यह कठिन है... यह कोई मजाक नहीं है । हर चीज, हर चीज, अव्यवस्थित होती जा रही है, हर चीज अव्यवस्थित होती जा रही है । लेकिन हम भली-भांति देख सकते हैं कि यह अव्यवस्था एक उच्चतर व्यवस्थाकी ओर गति कर रही है, यानी, एक विस्तार, एक मुक्ति -- यह सच है... । लेकिन कुछ भी, कुछ भी सामान्य ढंगसे नहीं हों रहा ।

 

 ( मौन)
 


     शरीर चेतनाकी एक ऐसी अवस्थामें पहुंच गया है जिसमें वह जानता है कि मृत्यु एक परिवर्तन ला सकती है, लेकिन -- यह तिरोभाव, ( चेतना का तिरोभाव) नहीं है । तो जन-साधारणकी बहुत बड़ी संख्याका यह विचार मृत्यु-विश्राम... ( माताजी मुंहपर हाथ रख लेती है, मानो यह बहुत बड़ी बेवकूफी हों), यह सांत्वना भी नहीं । अधिकतर लोगोंके लिये तो यह विश्रामका उलटा है । और वहां भी एक अधिक तेज, और तीव्र रूपमें ' 'केवल एक, बस अकेली, एक ही आशा है. हे प्रभो, तू बस, तू हों जाना । केवल तू ही है, यह विभाजन, यह विभेद गायब हीं जाय । यह भयानक है! वह गायब हों जाय ताकि जैसा तू चाहता है वैसा वह बने । पूरी सक्रियतामें स्वयं तू या फिर, तू ही पूर्ण विश्राममें, उसका कोई महत्व नहीं है; इस ओर हों या उस ओर, उसका कोई महत्व नहीं है, बिलकुल कोई महत्व नहीं है । महत्वपूर्ण बस यही है कि यह स्वयं तू है । ''

 

     यह पूर्ण निश्चिति है ( माताजी दोनों मुट्ठियां बंद कर लेती है) कि बाहर निकलनेका बस एक ही दरवाजा है, केवल एक -- बस एक ही -- कोई दूसरा नहीं, इसमें कोई चुनाव नहीं है, कई संभावनाएं नहीं हू, वसु केवल एक.. परम 'द्वार' चमत्कारोंका 'चमत्कार' । बाकी सब. - बाकी, सब वह संभव नहीं है ।

 

     और वह सब, इसका ( माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती है) अनुभव है, यह मानसिक नहीं है । यह बिलकुल, बिलकुल भौतिक है । मै देख रही हू, क्योंकि लोगोंकी चेतना मेरे आगे खुली हुई है ( कोई भेद नहीं है, वह बिलकुल खुली हुई है) । अतः मै देख रही हू. अधिकतर लोगोंमें, अधिकतरमें, जब चीजें सचमुच बहुत कादुटदायक हो जाती हैं तो यह विचार आता है ''ओह! ( हमेशा ऐसा हीं विचार आता है) ओह, एक दिम यह सब समाप्त हो जायगा '' -- क्या बेवकूफी है!

 

 ( मौन)

 

     लेकिन क्यों? क्यों.. समय-समयपर शरीरको चिता होती है क्यों ' क्यों, क्यों, यह सब क्यों?.. जब वह दुःखके साथ, लोगोंके साथ, कठिनाइयों-और दीनताओंके साथ संपर्कमें होता हैं तो क्यों? क्यों?.. क्या?

 

   चुकी यह सृष्टि अद्भुत बन सकती हैं, परम चेतनाके साथ एक हो सकती है तो फिर इस सबकी जरूरत ही क्या थी? (माताजी एक चक्र बनाती है जो घूमकर अपने आरंभ-बिन्दुपर आ जाता है) ।


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समय-समयपर उसे यह होता है ।

 

स्पष्ट है कि यह निरर्थक है, क्योंकि इससे कोई काम नहीं बनता -- यह ऐसा है, यह ऐसा है । समस्त 'क्यों' उसे ऐसा होनेसे रोक न सकेंगे । हमें बस इतना ही करना है कि ऐसे उपाय ढूंढ निकालें जिनसे वह ऐसा न रहे । बस यही ।

 

 ( मौन)

 

   मै हमेशा बुद्ध और उन सबके बारेमें सोचती हू : सब प्रभुमें विलीन हो जायंगे और तब कुछ भी न बचेगा । (माताजी अपना सिर दोनों हाथोंमें लें लेती हैं ।)

 

   इसलिये अपने सिद्धांतको कुछ-कुछ सत्य जैसा दिखलानेके लिये वे कहते हैं (हंसते हुए) कि यह ''भ्रांति '' है । वे अपने सिद्धांतका बेतुकापन नहीं देखते, मानों परम प्रभु भी भूल कर सकते हैं... और उन्हें बस पछ- ताना और उसे वापिस लेना है ।

 

      इन लोगोंके बारेमें, ये सभी लोग जितने ज्यादा विश्वस्त होते हैं उतना ही अधिक यह लगता है कि उन्होंने अपनी आंखोंपर अंधेरी लगा ली हैं !

 

 ( मौन)

 

             लेकिन, वास्तवमें आपका शरीर समस्त पृथ्वीका प्रतीक है ।

 

लगता तो ऐसा ही है ।

 

        इसलिये, हर चीज आपके पास शुद्ध होनेके लिये आती है ।

 

लेकिन इससे मुझे सांत्वना नहीं मिलती ।

 

     जी हां, लेकिन मुझे लगता है कि अगर कोई चीज, चाहे कुछ भी हो, एक बार आपको छू ले तो वह जगत् में जैसी-की- वैसी वापिस नहीं जा सकती ।

 

 लगता तो ऐसा ही है, हमेशा असाधारण चीजें होती रहती है । सारे

 

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 समय, सारे समय, हर मिनट, मैं ऐसी चीजोंके बारेमें सुनती हू जो सचमुच असाधारण हैं ।

 

    लेकिन इससे इस शरीरको कोई सांत्वना नहीं मिलती... । उसमें उस तरहका आत्म-सम्मान नहीं है ।

 

     जी, लेकिन उससे कुछ काम तो बनता ही है ।

 

 आह! हां ।

 

     वह शुद्ध करता है -- उसे सारे संसारको शुद्ध करना चाहिये ।

 

उसे उसकी शुद्धिकी कोई चिंता नहीं है... । पता नहीं कैसे समझाया जाय... वह रात-दिन, बिना व्यवधानके : ''जैसी तेरी इच्छा, हे प्रभो, जैसी तेरी इच्छा,... '' हां, ''जैसी तेरी इच्छा,'' ''जैसा तू चाहे'' नहीं, क्योंकि यह केवल ऐसा नहीं है (अंदरकी ओर संकेत), वह ऐसा भी है (बाहरकी ओर, ''फैला हुआ'' का संकेत), ''जैसी तेरी इच्छा, जो तू चाहे,'' और बस । यह अवस्था निरंतर रहती है ।

 

 ( मौन)

 

      बहरहाल (यह बहुत स्पष्ट है), जो चेतना उसके परिश्रममें सहायता करनेमें लगी है, उसने अच्छी तरह समझा दिया है कि चले जाना कोई समाधान नहीं है । अगर उसमें पहले यह जाननेकी उत्सुकता भी थी कि क्या होगा तो वह उत्सुकता जा चुकी है और फिर बने रहनेकी इच्छा, वह भी बहुत पहले जा चुकी है; जब वह बहुत... जरा दम घोटनेवाली स्थिति हों तो चले जानेकी इच्छाकी संभावना भी इस विचारके साथ चली गयी कि इससे कोई परिवर्तन न आयेगा । अत: उसके लिये बस एक ही चीज बच रही है, अपनी स्वीकृतिको और पूर्ण बनाये । बस, इतना ही ।

 

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